भक्ति काल की प्रमुख विशेषताएं | bhakti kaal ki visheshtayen

भक्ति काल की प्रमुख विशेषताएं | bhakti kaal ki visheshtayen

bhakti kaal ki visheshtayen: भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। इस दौरान मुख्य रूप से भक्ति विषयक काव्य की रचना की गई। आज हम भक्ति काल की प्रमुख विशेषताओं को जानेंगे। भक्ति काल की विशेषताएं जानने से पहले हम भक्ति काल के बारे में जान लेते हैं।

भक्ति काल क्या हैं ?

हिंदी साहित्य के इतिहास को चार युगों में विभाजित किया जाता है - आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल।

हिंदी साहित्य के इतिहास में 14वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी के बीच के युग को भक्ति काल के नाम से जाना जाता है क्योंकि इस काल में भक्ति का प्रचार-प्रसार हुआ और हिंदी साहित्य में भक्ति का एक महत्वपूर्ण स्थान बना। इस काल में कई महान कवियों ने भक्ति भावना को व्यक्त करने वाली रचनाएं लिखीं। इनमें कबीर, नानक, रैदास, सूरदास, तुलसीदास और मीराबाई प्रमुख हैं।

भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। भक्ति काल की समयावधि 1350 से 1650 ईसवीं तक मानी जाती है।

इस दौर में भक्ति काव्य की निर्मित लंबी परंपरा रही। इस दौरान कवियों ने धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की विशेषता रखने वाली कई कविताओं की रचना की।

समकालीन कवियों ने ईश्वर के प्रति प्रेम, अनुराग और समर्पण की कविता लिखी। भक्ति काल की रचनाओं में भगवान को एक प्रेमी, मित्र और सारथी के रूप में चित्रित किया गया। भक्ति की कई भावनाओं को व्यक्त किया गया जैसे - प्रेम, भक्ति, श्रद्धा और विश्वास।

भक्ति आंदोलन के उदय के कारण के पीछे अलग-अलग हिंदी साहित्य के विद्वानों का अलग-अलग मत हैं।

भक्ति काल को दो धाराओं में बाटा गया है - निर्गुण काव्यधारा और सगुण काव्यधारा। भक्ति काल में चार शाखाएं थी - ज्ञानाश्रयी शाखा, प्रेमाश्रयी शाखा, रामाश्रयी शाखा और कृष्णाश्रयी शाखा।

भक्ति काल की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को एक नया रूप दिया और उसे एक अधिक लोकप्रिय स्थान दिया। इन रचनाओं ने लोगों को ईश्वर के साथ संबंध बनाने और एक सुसंगत समाज बनाने के लिए प्रेरित किया।

भक्ति काल की विशेषताएं

भक्ति काल, हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण काल था जिसमें भक्ति और आध्यात्मिकता के विचारों को प्रमुखता दी गई। bhakti kaal ki visheshtayen निम्नलिखित है:

  • भक्ति केंद्रितता: भक्ति काल का सबसे महत्वपूर्ण विशेषता था भक्ति केंद्रितता। इस काल में ईश्वर या देवी-देवताओं के प्रति भक्ति और प्रेम महत्वपूर्ण था। संत-कवियों ने अपनी रचनाओं में उनकी अत्यंत भक्ति को अभिव्यक्त किया। भक्तिकाल की रचनाओं का मुख्य उद्देश्य लोगों में भक्ति की भावना को जागृत करना था। भक्तिकाल के कवियों ने भक्ति को एक लोकप्रिय आन्दोलन बनाया। उन्होंने लोगों को भक्ति की ओर आकर्षित किया और उन्हें भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण का संदेश दिया। उन्होंने लोगों को भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग दिखाया।
  • विभिन्न भक्ति भावनाओं का चित्रण: भक्तिकाल के कवियों ने विभिन्न भक्ति पंथों की शिक्षाओं को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया। उन्होंने निर्गुण भक्ति, सगुण भक्ति, प्रेम भक्ति आदि की भावनाओं को व्यक्त किया।
  • महान संत-कवि: इस काल के महान संत-कवि जैसे कि कबीर, तुलसीदास, मीराबाई, सूरदास, और रैदास ने अपने शृंगारिक और भक्तिपूर्ण काव्य के माध्यम से अपनी भक्ति को प्रस्तुत किया। उनके ग्रंथ आज भी हमारे साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। भक्ति काल के कवियों ने काव्य, भजन, और पद की रचनाएं की जिनमें वे भक्ति और आध्यात्मिक भावनाओं को सुंदरता के साथ व्यक्त करते थे।
  • दबाव मुक्त साहित्यिक रचना:  भक्ति काल के कवियों की यह विशेषता है कि इन्होंने किसी के दबाव में रचना नहीं की। आदि काल और रीतिकाल के कवि दरबारी थे। वे अपने आश्रयदाताओं के मनोरंजनार्थ काव्य-रचना किया करते थे। वे अपने हार्दिक भावों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं कर सकते थे। उनके विपरीत भक्ति कालीन कवियों को राजाश्रय की चिंता नहीं रहती थी। उन्हें राजाओं का गुणगान नहीं करना पड़ता था।
  • सामाजिक समरसता: भक्ति काल ने जाति, लिंग, और वर्ण के सामाजिक बंधनों को छूने का प्रयास किया। यह आध्यात्मिकता को सभी वर्गों के लोगों के लिए पहुंचने का माध्यम बन गया।
  • सरल और बोलचाल की भाषा का प्रयोग: भक्तिकाल की रचनाओं में सरल और बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। इससे ये रचनाएं आम लोगों के लिए अधिक सुलभ हो गईं। भक्तिकाल के कवियों ने आम लोगों की भाषा में लिखा ताकि वे अपनी रचनाओं को समझ सकें। उन्होंने संस्कृत के जटिल शब्दों और व्याकरण का प्रयोग नहीं किया। अवधी, ब्रज, अपभ्रंश, और खड़ी बोली में लिखी गई रचनाएं आज भी महत्वपूर्ण हैं।
  • भाषा व रचना शैली की उत्कृष्टता: भाषा व रचना शैली की उत्कृष्टता भक्ति काल की एक प्रमुख विशेषता है। इस काल में हुई रचनाओं में जिस भाषा शैली का प्रयोग हुआ वह अन्य किसी काल में नहीं हुई। हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली बार गीतमय-काव्य की रचना हुई।
  • शास्त्र ज्ञान की अनावश्यकता: भक्ति काल की एक विशेषता यह भी देखने को मिलती है कि इस युग के कवियों ने शास्त्र ज्ञान की उपेक्षा करते हुए निजी अनुभव से प्राप्त ज्ञान को महत्व दिया है। इस युग के कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को बताने की कोशिश की है कि शास्त्र ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति ज्ञानी नहीं होता जब तक वह व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त नहीं करता। भक्ति काल की यह विशेषता हमें कबीर दास के द्वारा लिखी इस पंक्ति से जानने को मिलती है: पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई। ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
  • गुरु का सर्वाधिक महत्त्व: गुरु का जो महत्व भक्ति काल के कवियों ने स्थापित किया वो अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। भक्ति काल में विभिन्न धाराओं के कवियों ने अपनी रचना में गुरु की महिमा को दर्शाया है। ईश्वर प्राप्ति के लिए उन्होंने गुरु के महत्व पर सर्वाधिक बल दिया है। कबीर, जायसी, तुलसीदास जैसे सभी महान संतों ने अपनी रचना में गुरु की महिमा का बखान किया है। एक उदाहरण इस प्रकार है: गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।
  • प्रेम तत्त्व का महत्व: भक्ति काल के कवियों की रचनाओं में प्रेम तत्व का महत्व होना भी एक प्रमुख विशेषता है। भक्ति काल के निर्गुण और सगुण दोनों धाराओं के संत एवं कवियों ने अपनी रचना में प्रेम की महिमा और सत्ता को स्वीकार किया है। सभी संतो ने भक्ति के मार्ग को प्रेम का मार्ग बताया है। उदाहरणस्वरूप कबीर द्वारा रचित यह दोहा: पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई। ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
  • सामाजिक परिवर्तन: भक्तिकाल के कवियों ने लोगों के जीवन से जुड़े विषयों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। उन्होंने सामाजिक बुराइयों और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। भक्ति काल ने सामाजिक बदलाव की ओर प्रोत्साहित किया।
  • वर्गभेद का विरोध: भक्ति काल के दौरान समाज में वर्ग-भेद जैसी कुरीति विद्यमान थी। समाज में जाति-पाति, ऊंच-नीच और छुआ-छूत जैसी भावनाएं लोगों में व्याप्त थी, जिसने समाज को कई टुकड़ों में बांट दिया था। समाज में ऐसी ऊंच-नीच की भावना लोगों में आपस में नफरत उत्पन्न कर रही थी। ऐसे में उस रूढ़िवादी काल में भक्ति काल के सभी कवियों ने अपनी रचना के माध्यम से वर्ग भेद का कठोरता से विरोध किया है। कबीर दास के द्वारा लिखी गई यह दोहा काफी प्रचलित है: जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान।।
  • रूढ़िवादी विचारधारा का खंडन: भक्ति काल के कवियों की रचनाओ में रुढ़िवादी विचारधारा के खंडन की विशेषता देखने को मिलती है। उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से उस समय समाज में व्याप्त बलि प्रथा, तीर्थयात्रा, मूर्ति पूजा, व्रत, रोजा जैसे आडंबरो का खुलकर विरोध किया है। यहां तक कि सगुण भक्त कवियों ने भी कहीं-कहीं रूढ़िवादी भावनाओं का विरोध किया है। उन्होंने अपनी रचना में शालीनता, क्षमता, सद्भाव और सहजता जैसे मूल्यों को महत्व दिया है। भक्ति काल के कवियों के द्वारा रूढ़िवादी विचारधारा को बयां करती कबीर दास की यह कविता प्रचलित है: पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहार। याते चाकी भली जो पीस खाय संसार।। कबीर द्वारा रचित एक अन्य दोहा जो प्रचलित है: कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
  • नारी-विषयक दृष्टिकोण: भक्ति काल के कवियों की रचना में एक अच्छी विशेषता यह देखने को मिलती है कि उन्होंने नारी विषयक दृष्टिकोण को सहजता से अभिव्यक्त किया है‌। यह विशेषता भक्ति काल के कवि कबीर दास के इस रचना से देखने को मिलती है: नारी की झाई परत, अंधा होत भुजंग। कबीरा तिनकी कौन गति नित नारी के संग।।
  • सांस्कृतिक बढ़ावा: भक्ति काल ने भारतीय सांस्कृतिक विचारों को बढ़ावा दिया।

हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ रचनाओं और उपर्युक्त विशेषताओं के कारण भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। भक्ति काल ने हिंदी साहित्य को नया दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय साहित्य और संस्कृति के समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भक्ति काल की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को समृद्ध और जीवंत बनाया है। इन रचनाओं ने लोगों को न केवल धार्मिक ज्ञान दिया, बल्कि उन्हें सामाजिक और नैतिक मूल्यों के बारे में भी सोचने के लिए प्रेरित किया।

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